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ॐ श्री परमात्मने नमः* *भक्तिमें विरहके समान कोई चीज नहीं । दूसरेके दुःखसे द्रवित होनेपर उस द्रवित हृदयमें जिज्ञासा, विरह आदि स्वतः पैदा हो जायेंगे ।* *जैसे औषधालयकी सब दवाएँ हमारे कामकी नहीं होतीं, ऐसे ही शास्त्रोंकी सब बातें सबके लिये नहीं होतीं । जो बात अपने कामकी है, उसे ले लो । आपको अपनी प्यास मिटानी है ।* *समुद्रमेंसे कोई राई कैसे निकाल सकता है ? नहीं निकाल सकता । पर संसारभरके ग्रन्थोंमेंसे भगवान्ने ‘गीता’ निकालकर हमें दे दी‒यह उनकी कितनी कृपा है ! फिर भी हम चेत न करें तो भगवान्का क्या दोष है ?* *आजकल विवेकमार्गी बहुत थोड़े हैं, ज्यादा विश्वासमार्गी ही हैं । जबतक जान नहीं जायेंगे, तबतक नहीं मानेंगे‒यह विवेकमार्ग है । विश्वासमार्गमें पहले मानकर फिर जानते हैं ।* *‘वासुदेवः सर्वम्’ में वाग्विवाद, मतभेद नहीं है । ज्ञानमें मतभेद होता है, प्रेममें मतभेद नहीं होता । प्रेम मतभेदको खा जाता है । मतमें भेद होता है, प्रेममें भेद नहीं होता । प्रेमाद्वैत बहुत विलक्षण चीज है ।* *जबतक संसारकी सत्ता रहेगी, तबतक भेद नहीं मिटेगा । जबतक संसार और परमात्मा, त्याज्य और ग्राह्य‒ये दो रहेंगे, तबतक प्रेम नहीं हो सकता । जबतक यह वृत्ति रहेगी कि मनको संसारसे हटायें और परमात्मामें लगायें, तबतक मनका सर्वथा निरोध नहीं होगा । जबतक दोका विभाग रहेगा, तबतक मनका निरोध बड़ा कठिन है । पर जब दूसरा कोई है ही नहीं, तब मन कहाँ जायगा ? जब एक प्रभुके सिवाय कुछ है ही नहीं, तो फिर मनको कहाँसे हटायेंगे और कहाँ लगायेंगे ? दो चीजें नहीं रहेंगी तो निरन्तर भजन ही होगा, भजनके सिवाय क्या होगा ? विवेकमार्गमें नित्य-अनित्य, सत्-असत्, जड़-चेतन दो चीजें रहेंगी ।* *वस्तु पासमें रखना दोष नहीं है, पर उसका सहारा नहीं होना चाहिये ।
ॐ श्री परमात्मने नमः* *भक्तिमें विरहके समान कोई चीज नहीं । दूसरेके दुःखसे द्रवित होनेपर उस द्रवित हृदयमें जिज्ञासा, विरह आदि स्वतः पैदा हो जायेंगे ।* *जैसे औषधालयकी सब दवाएँ हमारे कामकी नहीं होतीं, ऐसे ही शास्त्रोंकी सब बातें सबके लिये नहीं होतीं । जो बात अपने कामकी है, उसे ले लो । आपको अपनी प्यास मिटानी है ।* *समुद्रमेंसे कोई राई कैसे निकाल सकता है ? नहीं निकाल सकता । पर संसारभरके ग्रन्थोंमेंसे भगवान्ने ‘गीता’ निकालकर हमें दे दी‒यह उनकी कितनी कृपा है ! फिर भी हम चेत न करें तो भगवान्का क्या दोष है ?* *आजकल विवेकमार्गी बहुत थोड़े हैं, ज्यादा विश्वासमार्गी ही हैं । जबतक जान नहीं जायेंगे, तबतक नहीं मानेंगे‒यह विवेकमार्ग है । विश्वासमार्गमें पहले मानकर फिर जानते हैं ।* *‘वासुदेवः सर्वम्’ में वाग्विवाद, मतभेद नहीं है । ज्ञानमें मतभेद होता है, प्रेममें मतभेद नहीं होता । प्रेम मतभेदको खा जाता है । मतमें भेद होता है, प्रेममें भेद नहीं होता । प्रेमाद्वैत बहुत विलक्षण चीज है ।* *जबतक संसारकी सत्ता रहेगी, तबतक भेद नहीं मिटेगा । जबतक संसार और परमात्मा, त्याज्य और ग्राह्य‒ये दो रहेंगे, तबतक प्रेम नहीं हो सकता । जबतक यह वृत्ति रहेगी कि मनको संसारसे हटायें और परमात्मामें लगायें, तबतक मनका सर्वथा निरोध नहीं होगा । जबतक दोका विभाग रहेगा, तबतक मनका निरोध बड़ा कठिन है । पर जब दूसरा कोई है ही नहीं, तब मन कहाँ जायगा ? जब एक प्रभुके सिवाय कुछ है ही नहीं, तो फिर मनको कहाँसे हटायेंगे और कहाँ लगायेंगे ? दो चीजें नहीं रहेंगी तो निरन्तर भजन ही होगा, भजनके सिवाय क्या होगा ? विवेकमार्गमें नित्य-अनित्य, सत्-असत्, जड़-चेतन दो चीजें रहेंगी ।* *वस्तु पासमें रखना दोष नहीं है, पर उसका सहारा नहीं होना चाहिये ।
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