BAL Vnita mahila ashram

।।श्रीहरिः।।*
What ls True Friendship?
सच्ची मित्रता किसे कहते हैं?

श्रीमद्भागवत-सुधासागर
दशम स्कन्ध―अस्सीवाँ अध्याय
श्रीकृष्णके द्वारा सुदामाजीका स्वागत

राजा परीक्षित्‌ने पूछा—भगवन्! प्रेम और मुक्तिके दाता परब्रह्म परमात्मा भगवान्‌ श्रीकृष्णकी शक्ति अनन्त है। इसलिये उनकी माधुर्य और ऐश्वर्यसे भरी लीलाएँ भी अनन्त हैं। अब हम उनकी दूसरी लीलाएँ, जिनका वर्णन आपने अबतक नहीं किया है, सुनना चाहते हैं॥ ब्रह्मन्! यह जीव विषय-सुखको खोजते-खोजते अत्यन्त दुखी हो गया है। वे बाणकी तरह इसके चित्तमें चुभते रहते हैं। ऐसी स्थितिमें ऐसा कौन-सा रसिक—रसका विशेषज्ञ पुरुष होगा, जो बार-बार पवित्रकीर्ति भगवान्‌ श्रीकृष्णकी मङ्गलमयी लीलाओंका श्रवण करके भी उनसे विमुख होना चाहेगा॥ 💐जो वाणी भगवान्‌के गुणोंका गान करती है, वही सच्ची वाणी है। वे ही हाथ सच्चे हाथ हैं, जो भगवान्‌की सेवाके लिये काम करते हैं। वही मन सच्चा मन है, जो चराचर प्राणियोंमें निवास करनेवाले भगवान्‌का स्मरण करता है; और वे ही कान वास्तवमें कान कहनेयोग्य हैं, जो भगवान्‌की पुण्यमयी कथाओंका श्रवण करते हैं💐॥ 💐वही सिर सिर है, जो चराचर जगत्-को भगवान्‌की चल-अचल प्रतिमा समझकर नमस्कार करता है; और जो सर्वत्र भगवद्विग्रहका दर्शन करते हैं, वे ही नेत्र वास्तवमें नेत्र हैं। शरीरके जो अङ्ग भगवान्‌ और उनके भक्तोंके चरणोदकका सेवन करते हैं, वे ही अङ्ग वास्तवमें अङ्ग हैं; सच पूछिये तो उन्हींका होना सफल है💐॥१–४॥

सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो! जब राजा परीक्षित्‌ने इस प्रकार प्रश्न किया, तब भगवान्‌ श्रीशुकदेवजीका हृदय भगवान्‌ श्रीकृष्णमें ही तल्लीन हो गया। उन्होंने परीक्षित्‌से इस प्रकार कहा―॥५॥

श्रीशुकदेवजीने कहा—परीक्षित्‌! एक ब्राह्मण भगवान्‌ श्रीकृष्णके परम मित्र थे। वे बड़े ब्रह्मज्ञानी, विषयोंसे विरक्त, शान्तचित्त और जितेन्द्रिय थे॥ वे गृहस्थ होनेपर भी किसी प्रकारका संग्रह-परिग्रह न रखकर प्रारब्धके अनुसार जो कुछ मिल जाता, उसीमें सन्तुष्ट रहते थे। उनके वस्त्र तो फटे-पुराने थे ही, उनकी पत्नीके भी वैसे ही थे। वह भी अपने पतिके समान ही भूखसे दुबली हो रही थी॥ एक दिन दरिद्रताकी प्रतिमूर्ति दु:खिनी पतिव्रता भूखके मारे काँपती हुई अपने पतिदेवके पास गयी और मुरझाये हुए मुँहसे बोली―॥ ‘भगवन्! साक्षात् लक्ष्मीपति भगवान्‌ श्रीकृष्ण आपके सखा हैं। वे भक्तवाञ्छाकल्पतरु, शरणागतवत्सल और ब्राह्मणोंके परम भक्त हैं॥ परम भाग्यवान् आर्यपुत्र! वे साधु-सन्तोंके, सत्पुरुषोंके एकमात्र आश्रय हैं। आप उनके पास जाइये। जब वे जानेंगे कि आप कुटुम्बी हैं और अन्नके बिना दुखी हो रहे हैं, तो वे आपको बहुत-सा धन देंगे॥ आजकल वे भोज, वृष्णि और अन्धकवंशी यादवोंके स्वामीके रूपमें द्वारकामें ही निवास कर रहे हैं; और इतने उदार हैं कि 💐जो उनके चरणकमलोंका स्मरण करते हैं, उन प्रेमी भक्तोंको वे अपने-आपतकका दान कर डालते हैं। ऐसी स्थितिमें जगद्गुरु भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपने भक्तोंको यदि धन और विषय-सुख, जो अत्यन्त वाञ्छनीय नहीं है, दे दें, तो इसमें आश्चर्यकी कौन-सी बात है?’💐॥ इस प्रकार जब उन ब्राह्मणदेवताकी पत्नीने अपने पतिदेवसे कई बार बड़ी नम्रतासे प्रार्थना की, तब उन्होंने सोचा कि ‘धनकी तो कोई बात नहीं है; परन्तु भगवान्‌ श्रीकृष्णका दर्शन हो जायगा, यह तो जीवनका बहुत बड़ा लाभ है’॥ यही विचार करके उन्होंने जानेका निश्चय किया और अपनी पत्नीसे बोले―‘कल्याणी! घरमें कुछ भेंट देनेयोग्य वस्तु भी है क्या? यदि हो तो दे दो’॥ तब उस ब्राह्मणीने पास-पड़ोसके ब्राह्मणोंके घरसे चार मुट्ठी चिउड़े माँगकर एक कपड़ेमें बाँध दिये और भगवान्‌को भेंट देनेके लिये अपने पतिदेवको दे दिये॥ इसके बाद वे ब्राह्मणदेवता उन चिउड़ोंको लेकर द्वारकाके लिये चल पड़े। वे मार्गमें यह सोचते जाते थे कि ‘मुझे भगवान्‌ श्रीकृष्णके दर्शन कैसे प्राप्त होंगे?’॥६–१५॥

परीक्षित्‌! द्वारकामें पहुँचनेपर वे ब्राह्मणदेवता दूसरे ब्राह्मणोंके साथ सैनिकोंकी तीन छावनियाँ और तीन ड्योढ़ियाँ पार करके भगवद्धर्मका पालन करनेवाले अन्धक और वृष्णिवंशी यादवोंके महलोंमें, जहाँ पहुँचना अत्यन्त कठिन है, जा पहुँचे॥ उनके बीच भगवान्‌ श्रीकृष्णकी सोलह हजार रानियोंके महल थे। उनमेंसे एकमें उन ब्राह्मणदेवताने प्रवेश किया। वह महल खूब सजा-सजाया—अत्यन्त शोभायुक्त था। उसमें प्रवेश करते समय उन्हें ऐसा मालूम हुआ, मानो वे ब्रह्मानन्दके समुद्रमें डूब-उतरा रहे हों!॥ उस समय भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपनी प्राणप्रिया रुक्मिणीजीके पलंगपर विराजे हुए थे। ब्राह्मणदेवताको दूरसे ही देखकर वे सहसा उठ खड़े हुए और उनके पास आकर बड़े आनन्दसे उन्हें अपने भुजपाशमें बाँध लिया॥ परीक्षित्‌! परमानन्द-स्वरूप भगवान्‌ अपने प्यारे सखा ब्राह्मणदेवताके अङ्ग-स्पर्शसे अत्यन्त आनन्दित हुए। उनके कमलके समान कोमल नेत्रोंसे प्रेमके आँसू बरसने लगे॥ परीक्षित्‌! कुछ समयके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्णने उन्हें ले जाकर अपने पलंगपर बैठा दिया और स्वयं पूजनकी सामग्री लाकर उनकी पूजा की। प्रिय परीक्षित्‌! 💐भगवान्‌ श्रीकृष्ण सभीको पवित्र करनेवाले हैं; फिर भी उन्होंने अपने हाथों ब्राह्मणदेवताके पाँव पखारकर उनका चरणोदक अपने सिरपर धारण किया और उनके शरीरमें चन्दन, अरगजा, केसर आदि दिव्य गन्धोंका लेपन किया💐॥ 💐फिर उन्होंने बड़े आनन्दसे सुगन्धित धूप और दीपावलीसे अपने मित्रकी आरती उतारी। इस प्रकार पूजा करके पान एवं गाय देकर मधुर वचनोंसे ‘भले पधारे’ ऐसा कहकर उनका स्वागत किया💐॥ ब्राह्मण-देवता फटे-पुराने वस्त्र पहने हुए थे। शरीर अत्यन्त मलिन और दुर्बल था। देहकी सारी नसें दिखायी पड़ती थीं। स्वयं भगवती रुक्मिणीजी चँवर डुलाकर उनकी सेवा करने लगीं॥ अन्त:पुरकी स्त्रियाँ यह देखकर अत्यन्त विस्मित हो गयीं कि पवित्रकीर्ति भगवान्‌ श्रीकृष्ण अतिशय प्रेमसे इस मैले-कुचैले अवधूत ब्राह्मणकी पूजा कर रहे हैं!॥ वे आपसमें कहने लगीं―‘इस नंग-धड़ंग, निर्धन, निन्दनीय और निकृष्ट भिखमंगेने ऐसा कौन-सा पुण्य किया है, जिससे त्रिलोकीमें सबसे बड़े श्रीनिवास श्रीकृष्ण स्वयं इसका आदर-सत्कार कर रहे हैं। देखो तो सही, इन्होंने अपने पलंगपर सेवा करती हुई स्वयं लक्ष्मीरूपिणी रुक्मिणीजीको छोड़कर इस ब्राह्मणको अपने बड़े भाई बलरामजीके समान हृदयसे लगाया है’॥ प्रिय परीक्षित्‌! भगवान्‌ श्रीकृष्ण और वे ब्राह्मण दोनों एक-दूसरेका हाथ पकड़कर अपने पूर्वजीवनकी उन आनन्ददायक घटनाओंका स्मरण और वर्णन करने लगे जो गुरुकुलमें रहते समय घटित हुई थीं॥१६–२७॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—धर्मके मर्मज्ञ ब्राह्मणदेव! गुरुदक्षिणा देकर जब आप गुरुकुलसे लौट आये, तब आपने अपने अनुरूप स्त्रीसे विवाह किया या नहीं?॥ मैं जानता हूँ कि आपका चित्त गृहस्थीमें रहनेपर भी प्राय: विषय-भोगोंमें आसक्त नहीं है। विद्वन्! यह भी मुझे मालूम है कि धन आदिमें भी आपकी कोई प्रीति नहीं है॥ 💐जगत्-में विरले ही लोग ऐसे होते हैं, जो भगवान्‌की मायासे निर्मित विषयसम्बन्धी वासनाओंका त्याग कर देते हैं और चित्तमें विषयोंकी तनिक भी वासना न रहनेपर भी मेरे समान केवल लोकशिक्षाके लिये कर्म करते रहते हैं💐॥ ब्राह्मणशिरोमणे! क्या आपको उस समयकी बात याद है, जब हम दोनों एक साथ गुरुकुलमें निवास करते थे। 💐सचमुच गुरुकुलमें ही द्विजातियोंको अपने ज्ञातव्य वस्तुका ज्ञान होता है, जिसके द्वारा वे अज्ञानान्धकारसे पार हो जाते हैं💐॥ 💐! इस संसारमें शरीरका कारण—जन्मदाता पिता प्रथम गुरु है। इसके बाद उपनयन-संस्कार करके सत्कर्मोंकी शिक्षा देनेवाला दूसरा गुरु है। वह मेरे ही समान पूज्य है। तदनन्तर ज्ञानोपदेश करके परमात्माको प्राप्त करानेवाला गुरु तो मेरा स्वरूप ही है। वर्णाश्रमियोंके ये तीन गुरु होते हैं💐॥ 💐मेरे प्यारे मित्र! गुरुके स्वरूपमें स्वयं मैं हूँ। इस जगत्-में वर्णाश्रमियोंमें जो लोग अपने गुरुदेवके उपदेशानुसार अनायास ही भवसागर पार कर लेते हैं, वे अपने स्वार्थ और परमार्थके सच्चे जानकार हैं💐॥ प्रिय मित्र! मैं सबका आत्मा हूँ, सबके हृदयमें अन्तर्यामीरूपसे विराजमान हूँ। मैं गृहस्थके धर्म पञ्चमहायज्ञ आदिसे, ब्रह्मचारीके धर्म उपनयन-वेदाध्ययन आदिसे, वानप्रस्थीके धर्म तपस्यासे और सब ओरसे उपरत हो जाना―इस संन्यासीके धर्मसे भी उतना सन्तुष्ट नहीं होता, जितना गुरुदेवकी सेवा-शुश्रूषासे सन्तुष्ट होता हूँ॥२८–३४॥

ब्रह्मन्! जिस समय हमलोग गुरुकुलमें निवास कर रहे थे; उस समयकी वह बात आपको याद है क्या, जब हम दोनोंको एक दिन हमारी गुरुपत्नीने र्ईंधन लानेके लिये जंगलमें भेजा था॥ उस समय हमलोग एक घोर जंगलमें गये हुए थे और बिना ऋतुके ही बड़ा भयङ्कर आँधी-पानी आ गया था। आकाशमें बिजली कड़कने लगी थी॥ तबतक सूर्यास्त हो गया; चारों ओर अँधेरा-ही-अँधेरा फैल गया। धरतीपर इस प्रकार पानी-ही-पानी हो गया कि कहाँ गड्ढा है, कहाँ किनारा, इसका पता ही न चलता था॥ वह वर्षा क्या थी, एक छोटा-मोटा प्रलय ही था। आँधीके झटकों और वर्षाकी बौछारोंसे हमलोगोंको बड़ी पीड़ा हुई, दिशाका ज्ञान न रहा। हमलोग अत्यन्त आतुर हो गये और एक-दूसरेका हाथ पकड़कर जंगलमें इधर-उधर भटकते रहे॥ जब हमारे गुरुदेव सान्दीपनि मुनिको इस बातका पता चला, तब वे सूर्योदय होनेपर अपने शिष्य हम लोगोंको ढूँढ़ते हुए जंगलमें पहुँचे और उन्होंने देखा कि हम अत्यन्त आतुर हो रहे हैं॥ वे कहने लगे―‘आश्चर्य है, आश्चर्य है! पुत्रो! तुमलोगोंने हमारे लिये अत्यन्त कष्ट उठाया। सभी प्राणियोंको अपना शरीर सबसे अधिक प्रिय होता है; परन्तु तुम दोनों उसकी भी परवा न करके हमारी सेवामें ही संलग्न रहे॥ गुरुके ऋणसे मुक्त होनेके लिये सत्-शिष्योंका इतना ही कर्तव्य है कि वे विशुद्ध भावसे अपना सब कुछ और शरीर भी गुरुदेवकी सेवामें समर्पित कर दें॥ द्विजशिरोमणियो! मैं तुमलोगोंसे अत्यन्त प्रसन्न हूँ तुम्हारे सारे मनोरथ, सारी अभिलाषाएँ पूर्ण हों और तुमलोगोंने हमसे जो वेदाध्ययन किया है, वह तुम्हें सर्वदा कण्ठस्थ रहे तथा इस लोक एवं परलोकमें कहीं भी निष्फल न हो’॥ प्रिय मित्र! जिस समय हमलोग गुरुकुलमें निवास कर रहे थे, हमारे जीवनमें ऐसी-ऐसी अनेकों घटनाएँ घटित हुई थीं। इसमें सन्देह नहीं कि गुरुदेवकी कृपासे ही मनुष्य शान्तिका अधिकारी होता और पूर्णताको प्राप्त करता है॥३५–४३॥

ब्राह्मणदेवताने कहा―देवताओंके आराध्यदेव जगद्गुरु श्रीकृष्ण! भला अब हमें क्या करना बाकी है? क्योंकि आपके साथ, जो सत्यसङ्कल्प परमात्मा हैं, हमें गुरुकुलमें रहनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ था॥ 💐प्रभो! छन्दोमय वेद, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, चतुर्विध पुरुषार्थके मूल स्रोत हैं; और वे हैं आपके शरीर। वही आप वेदाध्ययनके लिये गुरुकुलमें निवास करें, यह मनुष्य-लीलाका अभिनय नहीं तो और क्या है?💐॥४४–४५॥

इक्यासीवाँ अध्याय
सुदामाजीको ऐश्वर्यकी प्राप्ति

💐श्रीशुकदेवजी कहते हैं―प्रिय परीक्षित्‌! भगवान्‌ श्रीकृष्ण सबके मनकी बात जानते हैं। वे ब्राह्मणोंके परम भक्त, उनके क्लेशोंके नाशक तथा सन्तोंके एकमात्र आश्रय हैं।💐 वे पूर्वोक्त प्रकारसे उन ब्राह्मणदेवताके साथ बहुत देरतक बातचीत करते रहे। अब वे अपने प्यारे सखा उन ब्राह्मणसे तनिक मुसकराकर विनोद करते हुए बोले। उस समय भगवान्‌ श्रीकृष्ण उन ब्राह्मणदेवताकी ओर प्रेमभरी दृष्टिसे देख रहे थे॥१-२॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा―‘ब्रह्मन्! आप अपने घरसे मेरे लिये क्या उपहार लाये हैं? 💐मेरे प्रेमी भक्त जब प्रेमसे थोड़ी-सी वस्तु भी मुझे अर्पण करते हैं, तो वह मेरे लिये बहुत हो जाती है। परन्तु मेरे अभक्त यदि बहुत-सी सामग्री भी मुझे भेंट करते हैं, तो उससे मैं सन्तुष्ट नहीं होता💐॥ 💐जो पुरुष प्रेम-भक्तिसे फल-फूल अथवा पत्ता-पानीमेंसे कोई भी वस्तु मुझे समर्पित करता है, तो मैं उस शुद्धचित्त भक्तका वह प्रेमोपहार केवल स्वीकार ही नहीं करता, बल्कि तुरन्त भोग लगा लेता हूँ’💐॥ परीक्षित्‌! भगवान्‌ श्रीकृष्णके ऐसा कहनेपर भी उन ब्राह्मण देवताने लज्जावश उन लक्ष्मीपतिको वे चार मुट्ठी चिउड़े नहीं दिये। उन्होंने संकोचसे अपना मुँह नीचे कर लिया था। परीक्षित्‌! 💐भगवान्‌ श्रीकृष्ण समस्त प्राणियोंके हृदयका एक-एक सङ्कल्प और उनका अभाव भी जानते हैं। उन्होंने ब्राह्मणके आनेका कारण, उनके हृदयकी बात जान ली। 💐अब वे विचार करने लगे कि ‘एक तो यह मेरा प्यारा सखा है, दूसरे इसने पहले कभी लक्ष्मीकी कामनासे मेरा भजन नहीं किया है। इस समय यह अपनी पतिव्रता पत्नीको प्रसन्न करनेके लिये उसीके आग्रहसे यहाँ आया है। अब मैं इसे ऐसी सम्पत्ति दूँगा, जो देवताओंके लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है’॥३–७॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने ऐसा विचार करके उनके वस्त्रमेंसे चिथड़ेकी एक पोटलीमें बँधा हुआ चिउड़ा ‘यह क्या है’―ऐसा कहकर स्वयं ही छीन लिया॥ और बड़े आदरसे कहने लगे―प्यारे मित्र! यह तो तुम मेरे लिये अत्यन्त प्रिय भेंट ले आये हो। ये चिउड़े न केवल मुझे, बल्कि सारे संसारको तृप्त करनेके लिये पर्याप्त हैं’॥ ऐसा कहकर वे उसमेंसे एक मुट्ठी चिउड़ा खा गये और दूसरी मुट्ठी ज्यों ही भरी, त्यों ही 💐रुक्मिणीके रूपमें स्वयं भगवती लक्ष्मीजीने भगवान्‌ श्रीकृष्णका हाथ पकड़ लिया! क्योंकि वे तो एकमात्र भगवान्‌के परायण हैं, उन्हें छोड़कर और कहीं जा नहीं सकतीं💐॥ 💐रुक्मिणीजीने कहा―‘विश्वात्मन्! बस, बस। मनुष्यको इस लोकमें तथा मरनेके बाद परलोकमें भी समस्त सम्पत्तियोंकी समृद्धि प्राप्त करनेके लिये यह एक मुट्ठी चिउड़ा ही बहुत है; क्योंकि आपके लिये इतना ही प्रसन्नताका हेतु बन जाता है’💐॥८–११॥

परीक्षित्‌! ब्राह्मणदेवता उस रातको भगवान्‌ श्रीकृष्णके महलमें ही रहे। उन्होंने बड़े आरामसे वहाँ खाया-पिया और ऐसा अनुभव किया, मानो मैं वैकुण्ठमें ही पहुँच गया हूँ॥ परीक्षित्‌! 💐ब्राह्मणको प्रत्यक्षरूपमें कुछ भी न मिला। फिर भी उन्होंने उनसे कुछ माँगा नहीं! वे अपने चित्तकी करतूतपर कुछ लज्जित-से होकर भगवान्‌ श्रीकृष्णके दर्शनजनित आनन्दमें डूबते-उतराते अपने घरकी ओर चल पड़े💐॥ 💐वे मन-ही-मन सोचने लगे―‘अहो, कितने आनन्द और आश्चर्यकी बात है! ब्राह्मणोंको अपना इष्टदेव माननेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्णकी ब्राह्मणभक्ति आज मैंने अपनी आँखों देख ली। धन्य है! जिनके वक्ष:स्थलपर स्वयं लक्ष्मीजी सदा विराजमान रहती हैं, उन्होंने मुझ अत्यन्त दरिद्रको अपने हृदयसे लगा लिया💐॥ 💐कहाँ तो मैं अत्यन्त पापी और दरिद्र, और कहाँ लक्ष्मीके एकमात्र आश्रय भगवान्‌ श्रीकृष्ण! परन्तु उन्होंने ‘यह ब्राह्मण है’—ऐसा समझकर मुझे अपनी भुजाओंमें भरकर हृदयसे लगा लिया💐॥ 💐इतना ही नहीं, उन्होंने मुझे उस पलंगपर सुलाया, जिसपर उनकी प्राणप्रिया रुक्मिणीजी शयन करती हैं। मानो मैं उनका सगा भाई हूँ! कहाँतक कहूँ? मैं थका हुआ था, इसलिये स्वयं उनकी पटरानी रुक्मिणीजीने अपने हाथों चँवर डुलाकर मेरी सेवा की💐॥ 💐ओह, देवताओंके आराध्यदेव होकर भी ब्राह्मणोंको अपना इष्टदेव माननेवाले प्रभुने पाँव दबाकर, अपने हाथों खिला-पिलाकर मेरी अत्यन्त सेवा-शुश्रूषा की और देवताके समान मेरी पूजा की💐॥ 💐स्वर्ग, मोक्ष, पृथ्वी और रसातलकी सम्पत्ति तथा समस्त योगसिद्धियोंकी प्राप्तिका मूल उनके चरणोंकी पूजा ही है💐॥ 💐फिर भी परमदयालु श्रीकृष्णने यह सोचकर मुझे थोड़ा-सा भी धन नहीं दिया कि कहीं यह दरिद्र धन पाकर बिलकुल मतवाला न हो जाय और मुझे न भूल बैठे’💐॥१२–२०॥

इस प्रकार मन-ही-मन विचार करते-करते ब्राह्मणदेवता अपने घरके पास पहुँच गये। वे वहाँ क्या देखते हैं कि सब-का-सब स्थान सूर्य, अग्नि और चन्द्रमाके समान तेजस्वी रत्ननिर्मित महलोंसे घिरा हुआ है। ठौर-ठौर चित्र-विचित्र उपवन और उद्यान बने हुए हैं तथा उनमें झुण्ड-के-झुण्ड रंग-बिरंगे पक्षी कलरव कर रहे हैं। सरोवरोंमें कुमुदिनी तथा श्वेत, नील और सौगन्धिक—भाँति-भाँतिके कमल खिले हुए हैं; सुन्दर-सुन्दर स्त्री-पुरुष बन-ठनकर इधर-उधर विचर रहे हैं। उस स्थानको देखकर ब्राह्मणदेवता सोचने लगे—‘मैं यह क्या देख रहा हूँ? यह किसका स्थान है? यदि यह वही स्थान है, जहाँ मैं रहता था, तो यह ऐसा कैसे हो गया’॥ इस प्रकार वे सोच ही रहे थे कि देवताओंके समान सुन्दर-सुन्दर स्त्री-पुरुष गाजे-बाजेके साथ मङ्गलगीत गाते हुए उस महाभाग्यवान् ब्राह्मणकी अगवानी करनेके लिये आये॥ 💐पतिदेवका शुभागमन सुनकर ब्राह्मणीको अपार आनन्द हुआ और वह हड़बड़ाकर जल्दी-जल्दी घरसे निकल आयी, वह ऐसी मालूम होती थी मानो मूर्तिमती लक्ष्मीजी ही कमलवनसे पधारी हों💐॥ 💐पतिदेवको देखते ही पतिव्रता पत्नीके नेत्रोंमें प्रेम और उत्कण्ठाके आवेगसे आँसू छलक आये। उसने अपने नेत्र बन्द कर लिये। ब्राह्मणीने बड़े प्रेमभावसे उन्हें नमस्कार किया और मन-ही-मन आलिङ्गन भी💐॥२१–२६॥

💐प्रिय परीक्षित्‌! ब्राह्मणपत्नी सोनेका हार पहनी हुई दासियोंके बीचमें विमानस्थित देवाङ्गनाके समान अत्यन्त शोभायमान एवं देदीप्यमान हो रही थी। उसे इस रूपमें देखकर वे विस्मित हो गये💐॥ 💐उन्होंने अपनी पत्नीके साथ बड़े प्रेमसे अपने महलमें प्रवेश किया। उनका महल क्या था, मानो देवराज इन्द्रका निवासस्थान। इसमें मणियोंके सैकड़ों खम्भे खड़े थे💐॥ हाथीके दाँतके बने हुए और सोनेके पातसे मँढ़े हुए पलंगोंपर दूधके फेनकी तरह श्वेत और कोमल बिछौने बिछ रहे थे। बहुत-से चँवर वहाँ रखे हुए थे, जिनमें सोनेकी डण्डियाँ लगी हुई थीं॥ सोनेके सिंहासन शोभायमान हो रहे थे, जिनपर बड़ी कोमल-कोमल गद्दियाँ लगी हुई थीं! ऐसे चँदोवे भी झिलमिला रहे थे जिनमें मोतियोंकी लड़ियाँ लटक रही थीं॥ स्फटिकमणिकी स्वच्छ भीतोंपर पन्नेकी पच्चीकारी की हुई थी। रत्ननिर्मित स्त्रीमूर्तियोंके हाथोंमें रत्नोंके दीपक जगमगा रहे थे॥ 💐इस प्रकार समस्त सम्पत्तियोंकी समृद्धि देखकर और उसका कोई प्रत्यक्ष कारण न पाकर, बड़ी गम्भीरतासे ब्राह्मणदेवता विचार करने लगे कि मेरे पास इतनी सम्पत्ति कहाँसे आ गयी💐॥ 💐वे मन-ही-मन कहने लगे―‘मैं जन्मसे ही भाग्यहीन और दरिद्र हूँ। फिर मेरी इस सम्पत्ति-समृद्धिका कारण क्या है? अवश्य ही परमैश्वर्यशाली यदुवंशशिरोमणि भगवान्‌ श्रीकृष्णके कृपाकटाक्षके अतिरिक्त और कोई कारण नहीं हो सकता💐॥ 💐यह सब कुछ उनकी करुणाकी ही देन है। स्वयं भगवान्‌ श्रीकृष्ण पूर्णकाम और लक्ष्मीपति होनेके कारण अनन्त भोगसामग्रियोंसे युक्त हैं। इसलिये वे याचक भक्तको उसके मनका भाव जानकर बहुत कुछ दे देते हैं, परन्तु उसे समझते हैं बहुत थोड़ा; इसलिये सामने कुछ कहते नहीं। मेरे यदुवंशशिरोमणि सखा श्यामसुन्दर सचमुच उस मेघसे भी बढ़कर उदार हैं, जो समुद्रको भर देनेकी शक्ति रखनेपर भी किसानके सामने न बरसकर उसके सो जानेपर रातमें बरसता है और बहुत बरसनेपर भी थोड़ा ही समझता है💐॥ 💐मेरे प्यारे सखा श्रीकृष्ण देते हैं बहुत, पर उसे मानते हैं बहुत थोड़ा! और उनका प्रेमी भक्त यदि उनके लिये कुछ भी कर दे, तो वे उसको बहुत मान लेते हैं। देखो तो सही! मैंने उन्हें केवल एक मुट्ठी चिउड़ा भेंट किया था, पर उदार-शिरोमणि श्रीकृष्णने उसे कितने प्रेमसे स्वीकार किया💐॥ 💐मुझे जन्म-जन्म उन्हींका प्रेम, उन्हींकी हितैषिता, उन्हींकी मित्रता और उन्हींकी सेवा प्राप्त हो। मुझे सम्पत्तिकी आवश्यकता नहीं, सदा-सर्वदा उन्हीं गुणोंके एकमात्र निवासस्थान महानुभाव भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणोंमें मेरा अनुराग बढ़ता जाय और उन्हींके प्रेमी भक्तोंका सत्सङ्ग प्राप्त हो💐॥ 💐अजन्मा भगवान्‌ श्रीकृष्ण सम्पत्ति आदिके दोष जानते हैं। वे देखते हैं कि बड़े-बड़े धनियोंका धन और ऐश्वर्यके मदसे पतन हो जाता है। इसलिये वे अपने अदूरदर्शी भक्तको उसके माँगते रहनेपर भी तरह-तरहकी सम्पत्ति, राज्य और ऐश्वर्य आदि नहीं देते। यह उनकी बड़ी कृपा है’💐॥ 💐परीक्षित्‌! अपनी बुद्धिसे इस प्रकार निश्चय करके वे ब्राह्मणदेवता त्यागपूर्वक अनासक्तभावसे अपनी पत्नीके साथ भगवत्प्रसादस्वरूप विषयोंको ग्रहण करने लगे और दिनोंदिन उनकी प्रेम-भक्ति बढ़ने लगी💐॥२७–३८॥

💐प्रिय परीक्षित्‌! देवताओंके भी आराध्यदेव भक्त-भयहारी यज्ञपति सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ स्वयं ब्राह्मणोंको अपना प्रभु, अपना इष्टदेव मानते हैं। इसलिये ब्राह्मणोंसे बढ़कर (भाग्यशाली?!) और कोई भी प्राणी जगत्-में नहीं है💐॥ 💐इस प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्णके प्यारे सखा उस ब्राह्मणने देखा कि ‘यद्यपि भगवान्‌ अजित हैं, किसीके अधीन नहीं हैं; फिर भी वे अपने सेवकोंके अधीन हो जाते हैं, उनसे पराजित हो जाते हैं;’ अब वे उन्हींके ध्यानमें तन्मय हो गये। ध्यानके आवेगसे उनकी अविद्याकी गाँठ कट गयी और उन्होंने थोड़े ही समयमें भगवान्‌का धाम, जो कि सन्तोंका एकमात्र आश्रय है, प्राप्त किया💐॥ 💐परीक्षित्! ब्राह्मणोंको अपना इष्टदेव माननेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्णकी इस ब्राह्मणभक्तिको जो सुनता है, उसे भगवान्‌के चरणोंमें प्रेमभाव प्राप्त हो जाता है और वह कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है💐॥३९–४१॥
💐जय जय सियारामजीकी💐

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